यंत्रों का महाविज्ञान, श्री यंत्र का आश्चर्यजनक रहस्य
यंत्रों का महाविज्ञान, श्री यंत्र का आश्चर्यजनक रहस्य
तांत्रिक एवं आध्यात्मिक यंत्रों को हमारा बौद्धिक समाज तो नहीं ही
समझ रहा है ; आध्यात्मिक स्तर पर भी इन्हें समझने का प्रयत्न कोई नहीं
करता। बस पूजा घर में स्थापित कर दो और धूप-दीप दिखाकर पूजा करो; सब सही हो
जाएगा। मंत्र जप करो, सिद्धि मिल जाएगी। मगर जब हमे इसे आधुनिक वैज्ञानिक
और स्पष्ट रूप में समझने की कोशिश करेंगे; तभी इनका कोई फल प्राप्त होगा।
केवल आस्था से भावना फलित होती है; पर जब हम जानकर उसका प्रयोग करते है, तो
भावना , मन, बुद्धि, मस्तिष्क सभी एक होते है और तब वह भावना स्थिर मजबूत,
अविश्वास संदेह से रहित होती है। सबसे पहले हम श्री यंत्र को समझेंगे।
श्री यंत्र कई प्रकार के होते है। बिना कर्णिका का षट्कोण; जो वास्तव
में उर्ध्वनामान्याय नामक मार्ग का भैरवी चक्र है।शास्त्रीय स्तर पर यह कहा
गया है कि शिव के पांच मुखों से तन्त्र को पांच मार्ग प्रकट हुए। चारों
दिशाओं के नाम पर और एक उर्ध्वमुखी। उर्ध्व नाम्नाय इसी प्रकार का मार्ग
है। इसका आंतरिक स्वरुप बेहद गुप्त है और इसके बारे में आंतरिक रहस्यों को
जानने के लिए किसी गुरु का मिल जाना होता है; जो कभी अपना परिचय किसी को
नहीं बताता। वह वेशभूषा , आडम्बर रहित चादर विहीन यानी बिना कोई धार्मिक
आचरण ओढ़े काम करने वाला होता है। वह राजा भी हो सकता है, वैश्य , क्षत्रिय
या शुद्र भी। इसमें जितना श्रेष्ठ ज्ञानी गुरु होता है; उसी की महत्ता होती
है। जाती आदि या स्त्री-पुरुष आदि पर कोई भेद नहीं होता। ब्राहमण को शुद्र
का पैर धोना पड़ सकता है, पुरुष को स्त्री का। जो इस मार्ग के रहस्यों को
जानकार है, वही शिव है , वही भैरव है। इनका कोई बाहरी रूप नहीं होता, इसलिए
इन्हें पहचानना कठिन है।
श्री यंत्र एक अन्य रूप कर्णिका और कमल दल सहित होता अहि। इसमें नव कोण
होता है और आठ दल के बाद भरपूर होता है। इसमें नवधा शक्ति की पूजा होती है।
एक रूप केवल एक त्रिकोण का है; इसमें प्रारंभ के टिन आदि शक्ति की पूजा
होती है। इसमें काली-तारा आदि है। इसे हम पहले स्पष्ट कर चुके है (तन्त्र –
रहस्य देखें) एक की कर्णिका में षट्कोण होता है। एक में 14 कोण होते है।
इसमें दो कर्णिका होती है। पहले की वृत्त रेखा पर आठ दल और दूसरे की वृत्त
रेखा पर 16 दल होते है। फिर तीन रेखाओं का वृत्त और चारों ओर तीन रेखाओं
वाला भरपूर होता है।
हमने सबसे पहले श्री यंत्र को इसलिए चुना है कि इस यंत्र को समझे बिना
भारतीय आध्यात्म को समझना संभव नहीं है। अधिकतर देवी-देवता की पूजा इसी पर
की जाती है। यह वाममार्ग का यंत्र है; पर इसी पर वाम-दक्षिण मार्ग के पूजा
के सारे चक्रों , योग विद्या के सभी चक्रों, काली दुर्गा आदि देवियों की
पूजा में वर्णित चक्रों का विज्ञान आधारित है। समस्त देवी पिंडियाँ , समस्त
मातृकाएं , सभी शिवलिंग , मन्दिर आदि में इसी का विज्ञान है। सच तो यह है
कि इसी श्री चक्र का एक रूप चाहे स्त्री हों या पूरुष हम भी है। यह जीव
–जन्तु ,नर-मादा , पेड़-पौधों, धरती-सूरज, यह ब्रह्माण्ड और इसकी छोटी बड़ी
सभी इकाई में व्याप्त है।ब्रह्माण्ड में जो भी, जहाँ भी, जिस रूप में भी
है; उस पर इसी यंत्र का विज्ञान क्रियाशील है। यह परा विज्ञान के उस
आश्चर्यचकित कर देने वाले पॉवर-साइंस का वर्णन है, जिसके बारे में आधुनिक
विज्ञान, ए.बी.सी.डी. नहीं जानता।
इन श्री यंत्रों में एक, दो, तीन, पांच एवं नौ त्रिकोणों की रचना की
जाती है। शास्त्रीय रूप में प्रथम उर्ध्वगामी त्रिकोण, आधाशक्ति है। इसे
देवी की योनि प्रदेश, कमर, नाभि से निचे पैरों के हिस्सों के रूप में जाना
जाता है, अधोगामी त्रिभुज में चेहरा बांह , स्तन माना जाता अहि। शास्त्रों
में बाहों-पैरों का नाम नहीं है; क्योंकि ये कर्णिका की वृत्तात्मक रेखाएं
है।
तन्त्र में अनेक मार्ग है। अनेक केवल शास्त्रों में है, वे इतने गुप्त
है की उनके बारे में शास्त्रों में भी कम विवरण मिलते है। मुख्य रूप से जो
ज्ञात है, उसमें कादिमत, हादिमत और कहादि मत है । यह नाम मन्त्रों के आधार
पर है। कादिमत के मन्त्रों में मंत्र ‘क’ से प्रारंभ होते है, हादिमत में
‘ह’ से । कहादि मत में यह ‘कह’ से प्रारम्भ होते है। इन मतों की गुरु
परम्परा में गुरुओं की श्रृंखलाएं है। इसमें दैवौद्य , सिद्धौद्य एवं
मानवौद्यवर्ग है। एक-एक वर्ग में कई-कई गुरु है।
क्या है श्री यंत्र
तन्त्र रहस्य में हम बता आये है कि यह सृष्टि की उत्पत्ति, आत्मा की
उत्पत्ति , अंकों की उत्पत्ति, इस ब्रह्माण्ड और इसकी इकाईयों के
पॉवर-स्ट्रक्चर का आउटर स्केच है।इस स्केच में केवल मुख्य बाते है । इसकी
वास्तविक संरचना इतनी जटिल है कि स्केच बनानेवाला कोई बड़ा एक्सपर्ट
कंप्यूटर पर बैठे; तो कम से कम एक महीना लगेगा। वह भी कर सका, तो। इसकी
थ्री डी संरचना (त्रिकोणों , कर्णिका और भूपुर की) किस प्रकार ही होती है,
उसका सम्पूर्ण विवरण तन्त्र रहस्य शीर्षक में है। पर वह भी आउटर स्केच ।
परन्तु फिर भी इसके बहुत सारे रहस्यों को वहां वैज्ञानिक शब्दों में समझा
दिया है।
हमारा शेषनाग, हमारा कछुआ, हमारे पुराणों का मत्यावतार आदि अनेक रूपक
कथाओं का वैज्ञानिक सूत्र यहाँ है। इस श्री चक्र के चित्र में सृष्टि का
समस्त रहस्य छिपा हुआ है।
इस चक्र पर सभी प्रकार कि पूजा तीन प्रकार से होती है –
- स्थूल
- सूक्ष्म
- भाव प्रधान
स्थूल पूजा – यह भौतिक रूप की पूजा होती है। भावरूप का
चित्र या मूर्ती बनाकर या भैरवी को अभिषेक करके मंत्र और विधि के साथ
दीक्षित करके देवी बनाकर। इसमें यंत्र के मध्य देवी के या देवता के स्थूल
रूप को स्थापित किया जाता है।
सूक्ष्म पूजा – इसमें यंत्र पूजन करके मंत्र जपा जाता है। यंत्र के अंदर ही देवी-देवता की भावना की जाती है।
भाव प्रधान – इसमें सब कुछ भाव में होता है। इसमें बहुत से भैरवी का होना आवश्यक मानते है, बहुँत केवल ध्यान में ही सारी साधना करते है।
ये सारी साधनाएं ज्ञान और मुक्ति के लीये की जाती है। सिद्धि इनका
उद्देश्य नहीं होता; पर बहुत से आचार्य कहते है कि सिद्धियों से जो शक्ति
या जानकारी प्राप्त होती है, बिना उस पर मानसिक परिश्रम और तर्क किये (
यानी बिना उन तथ्यों और शक्ति के द्वारा विचार-संघर्ष किये) ज्ञान की
प्राप्ति असम्भव है। सिद्धियाँ शक्ति देती है, ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना
मुक्ति असम्भव है।
जिस कुण्डलिनी के चक्र को, जिस शिवलिंग को हम मुक्ति और ऐश्वर्य का मार्ग मानते है; वे इस श्री चक्र के विज्ञान से सम्बन्धित है।
इसलिए यह यंत्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यंत्र है। यह एक ही यंत्र परा
विज्ञान के समस्त रहस्यों को बताने वाला और समस्त शक्तियों की सिद्धि की
चाभी है।
इस यंत्र में एक अति महत्त्व पूर्ण संरचना ‘बिंदु’ है। यह कर्णिका का
मध्य होता है। यह षट्कोण , त्रिकोण, नव कोण आदि का मध्य है। इसमें तीन
वृत्त होते है। वास्तविक बिंदु अंदर का सफेद वृत्त होता है। उसके उपर एक
पट्टी रहती है और उसके ऊपर एक पट्टी। बीच में सदाशिव (परमतत्व/ परमात्मा),
उसके बाहर शिव-पार्वती होते है। पहले शिव, फिर पार्वती।
इन यंत्रों पर कोई भी पूजा तीनो रूपों में होती है। बिंदु से प्रारंभ
करके केंद्र प्रसारी (बायें से दायें ऊपर से) , भुपूर से बिंदु की ओर
केन्द्राभिगामी (दायें से बाये ऊपर से) , केवल मध्य बिंदु और त्रिकोण पहली
सृष्टिक्रम है, दूसरी संहार क्रम है , तीसरी स्थिति क्रम है। पहली प्राप्ति
के लिए , दूसरी मुक्ति के लिए, तीसरी भोग के लिए की जाती है।
यहाँ एक स्ट्रक्चर सम्बन्धी भिन्नता भी शास्त्रीय वर्णनों में प्राप्त
होती है। एक पहले अधोगामी त्रिभुज की उत्पत्ति मानता है, दूसरा उर्ध्वगामी।
प्रमाण उर्ध्व गामी के मिलते है , अधोगामी के नहीं। इसलिए यह मत ही मानना
पड़ता है कि पहले ‘योनि’ ( एक संरचना, जिस पर – चार्ज होता है) उत्पन्न हुई,
उसकी प्रतिक्रिया में लिंग की उत्पत्ति हुई; दोनों के मिलने से महामाया
शक्ति ‘श्री’ की उत्पत्ति हुई, जिसके हृदय में उसकी केंद्रीय शक्ति
राजराजेश्वरी भोग प्रिय ‘शिव’ की उत्पति हुई। उनकी ही कामना से उनके शरीर
के दोनों ‘योनि-लिंग’ लगातार समागम कर रहे अहि, इसी से सृष्टि है। यह
व्याख्या सभी इकाइयों पर व्याप्त है। शरीर ही योनि-लिंग समागम से है। ये
चक्की के दो पाट है। -,- ऊर्जाक्षेत्र के पाट । केंद्र में अर्द्धनारीश्वर
है। (शिव पार्वती) अपने केंद्र में राजराजेश्वरी को लिए (शैव मार्ग) में
सर्वत्र शिव-पार्वती होते है । प्रकृति में स्वतंत्र सत्ता इनमें से किसी
की नहीं होती। + की उत्पत्ति , – के कारण होती है। एक उत्पन्न होगा, दूसरा
भी होगा वर्ना उत्पत्ति नष्ट होगी या उत्पत्ति स्थल। उर्ध्व गामी का प्रमाण
यह है कि मूलाधार नीचे होता है, शीर्ष सहस्त्रार ऊपर। यही क्रम सभी
साधनाओं में माना जाता है। मूलाधार या मूल आधार ही वह नेगेटिव बेस है ,
जिसपर सारा अस्तित्त्व होता है। राजराजेश्वरी शिव ह्रदय केंद्र यानी धूरी
के केंद्र में होती है। मस्तिष्क में भी शिव पार्वती रहते है , पर यहाँ वे
शिव नितांत वैरागी है। पार्वती दया-ममता वाली –युक्ति लगातार कल्याण करने
वाली।
यह मस्तिष्क के ही दो हिस्से है। एक बिंदु के चारों ओर , दूसरा उसके
चारों ओर। रश्मियाँ इस बाहरी वृत्त से निकलती है। मस्तिष्क का निर्माण भी
इसी वृत्त की एक संरचना से होता है। रश्मियाँ वैचारिक लहरें उत्पन्न करती
है। इससे जिज्ञासा, बुद्धि, विचार शक्ति आदि उत्पन्न होते है।
आप मुसीबत में हो; तो मस्तिष्क शिव से पूछता है। आपने जो उसे दिया है,
उस जानकारी के अनुसार वह रिजल्ट बता देता है। कुछ अन्हीं मामूल हुआ तो वह
आपसे पूछता है और आपको जानकारी प्राप्त करने के रास्ते भी बताता है।
पर नीचे जो केंद्र में शिव बैठा है वही राजा है और भोक्ता है। वह
भोगवादी , स्वार्थी और लालची , अहंकारी सभी है । उसे अच्छा न लगे, तो वह
मस्तिष्क के फैसले को रिजेक्ट करके , उसे बेईमानी , छल आदि करने को कहता
है। वह करता है। उसे कोई मतलब नहीं है कि आप नर्क में जाते है कि स्वर्ग
में और आपका छल असफल होगा या सफल। लेकिन नहीं। वह सावधान करता है । हर ऐसा
काम जो शंकित है, उसके परिणाम दर्शाता है, परआप फाइनल कर लते है , उसकी
मानते ही नहीं। इसीलिए ज्योतिष में कहा जाता है कि बृहस्पति और चन्द्रमा का
पुत्र बाप के कहे को नहीं मानता। वह छल, बल, निति को मनोकामना पूर्ती में
प्रयुक्त करता अहि।
इसे आप धार्मिक कथा समझिये , पर यह एक सिस्टम है। एक वैज्ञानिक सिस्टम,
जो प्रकृति की हर इकाई पर व्याप्त है। इस सिस्टम पर ही हमारा सारा
आध्यात्मिक , तांत्रिक, ज्योतिष, वास्तु, मन्दिर, देवी, पूजा ,यज्ञ आदि सभी
कुछ टिका हुआ है।
श्री चक्र उसी सिस्टम क आउटर टू.डी. स्केच है। यंत्रों को पूजा हेतु
कागज पर बनाकर प्राण प्रतिष्ठित (सिद्ध) किया जाए या धरती-धातु पर। उसमें
रंगों, उसके उपयोगों और देवी-देवता का ध्यान रखना, सिद्धिकाल का ध्यान रखना
जरूरी है। किस देवता या शक्ति के लिए कैसा श्री यंत्र बनाना चहिये, किस
समयकाल मुहूर्त में बनाना चाहिए आदि कई बातों का पालन करके इसकी प्राण
प्रतिष्ठा करनी होती है।
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